ज़रा-सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

ज़रा-सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है, जो हवाओं के पार कतरता है
शराफ़तों की यहां कोई अहमियत ही नहीं
किसी का न बिगाड़ों, तो कौन डरता है

यह देखना है कि सहरा भी है, समन्दर भी
वह मेरी तश्नालबी किसके नाम करता है

तुम आ गये हो, तो कुछ चांदनी-सी बातें हों
ज़मीं पे चांद कहां रोज़-रोज़ उतरता है

ज़मीं की कैसी वकालत हो, फिर नहीं चलती
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है

3 comments:

jra...sa...katra.bahut khub.kaise hai javed bhai.muhje jaan rhe hai ki nahi.london ki hawa mai bhi apne desh ki khushbo.

20 May 2009 at 9:57 pm  

as usual this is beyond comparisons .. good as always :)

28 May 2009 at 2:38 am  

jami pe chand kaha roj-roj utarta hai.....kya khub likha hai

28 June 2009 at 1:41 am  

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