अपने हर लफ़्ज़् का ख़ुद आईना हो जाऊँगा...उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा...तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं...मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा...वसीम बरेलवी
आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंजर क्यूँ है जख्म हर सर पे, हर हाथ में पत्थर क्यूँ है जब हकीकत है, के हर जर्रे में तू रहता है, फिर जमीन पर कहीं मस्जिद, कहीं मंदिर क्यूँ है
satyendra Yadav said...
सर जी आपकी इन चार लाइनों ने दिल जीत लिया...
25 August 2008 at 6:53 pm